अलार्म घड़ी

-By Hrishikesh Chandrayan

दुनिया गोल है। कहते हैं, जब कोई सोने जाता है, तब कोई और उठता है। इस चक्र का मर्म तब उभर के आता जब कोई सोना चाहता है और दूसरा उठाना…

यह कविता उन्हें समर्पित है जो प्रत्यक्ष से परे, सदा नींद में स्वप्न की दुनिया में मुग्ध रहना चाहते हैं…
और उन्हें भी, जो जागृत हो, वास्तविकता का खट्टा मीठा स्वाद लेना चाहते हैं।

तू सो रही है ना?

तुझे समय पर जगा दिया करूंगी।

मैं सिर्फ तेरी घड़ी ही सही,

सही वक्त बता दिया करूंगी।


सहनशील स्वभाव की हूं मैं,

तेरी हर मार सह लिया करूंगी।

यही सही, 

इस ढलती उम्र में तूने मुझे काम तो दिया,

मेरी परी! तेरा आभार कैसे करूंगी?


तुझे हसा के, गुदगुदा के,

तेरी हर ढलती शाम की सुबह कर दिया करूंगी।

जा! देख ले सारे मनमोहक ख्वाब,

मैं सही वक्त पर जगा दिया करूंगी।


सो जाती है तू गुस्से में कुछ बड़बड़ाते हुए,

कभी सिसकते हुए तो कभी मुस्कुराते हुए।

इससे मन ही मन डरती हूं,

तुझे जगाऊं या, सो जाने को कह दूं।


ख्वाब देख रही है तू,

गुलाबी ठंड में सातवें आसमान पर उस खूबसूरत बदल के।

लेकिन ज़रा सम्हल के उड़ना!

सुना है, 

कल कोहरे के कारण कई उड़ानें रद्द हो गई थी।


मैं तुझे देख ज़रूर पा रही हूं,

मगर जो दिख रही, क्या वो तू ही है?

तूने 2 महीने पहले कहा था,

कल समय निकाल के आपका कांच बदलवा दूंगी।


ना बेवजह बिगडूंगी,

ना बेवक्त बजकर तुझे परेशान करूंगी।

‘ बड़े कॉलेजों में दिन रात पढ़ना पड़ता है ‘

केहके अपने कुंठित मन को, प्यार से फुसला लूंगी।


शायद तू भूल गई,

आज मुझे चौवालीस साल हो चुके है।

पर वो छोड़, सुबह समय पर उठ जाना,

वो क्या है, साढ़े 9 बजे नाश्ता खत्म हो जाता है।


अच्छा, मैं क्या कह रही थी…

तू सुन भी रही है?

तू सो रही है ना…

तुझे समय पर जगा दिया करूंगी।

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