Written by Aman Lintu
खुली छत है
पछुआ की रात है
बढ़ती ठंड
शरीर न्यूनतम वर्त्तुल अवस्था में है
बगल में अधजगी माँ सोई है!
राजू को मद्धम से स्पर्श करती है
राजू की सिकुड़न का आभास होता है
अपने आँचल से राजू को ढंकती है
राजू को गर्मी का अहसास होता है
और जोर से आँचल को पकड़कर
सीने से कसकर
राजू निश्चिंत से सो जाता है
भोर हो चुकी है
पर चाँद का जाना अभी बाकी है!
माँ जाग चुकी है
और राजू माँ का पल्लू पकड़कर
माँ के साथ ही दौड़ रहा है
इधर-उधर
लकड़ी-कोयले-जलावन
माँ बारी-बारी से सब इकठ्ठा कर रही है
राजू भी साथ में एक-दो गोयठे ले आता है
लाल सूरज निकल आया है
राजू ने पल्लू छोड़ दिया है
लेकिन माँ का पिछलग्गू बना दौड़ रहा है
माँ चूल्हा लिप रही है
मल्हारी भी गा रही है
राजू जलावन के समीप बैठा है
कोयले से कुछ आकृत्तियाँ खींच रहा है
चूल्हा अब सुलग चुका है
माँ बैठी आँच दे रही है
राजू माँ के पीठ से चिपककर खड़ा है
बीच-बीच में एक-दो कोयले चूल्हे में दे मारता है
धुएँ से आँखों में जलन शुरू हो गई है
माँ बार-बार दूर जाने को कह रही है
पर राजू स्थिर खड़ा है
माँ रह-रहकर आँचल में राजू को छिपा लेती है
एकाध बार अपनी आँखें भी पोंछ लेती है
खाना अब तैयार हो चुका है
माँ ने खाना लगाया है
भात-दाल और आलू की सब्जी है
राजू भी नहा-धोकर बैठा है
माँ ने भात-दाल-तरकारी साथ सानकर
बड़ा कौर तैयार किया
और निवाला राजू की ओर बढ़ाया
राजू मुँह सरकाकर थोड़ा आगे ले जाता है
माँ ने कौर वापस रख दिया
राजू सने कौर को देख रहा है
माँ दाल में छौंक लगाना भूल गई है
माँ भण्डारे में जाती है
छौंक लगाती है
छौंक की खुशबू राजू के नाक में गुदगुदी कर रही है
और फिर एक जोर की छींक
छींक के छींटे राजू के हाथ पर पसर गए हैं
राजू की आँखें झट से खुलीं
कौर नहीं था,माँ कहाँ थी?!
बस हल्की सी डबडबी आँखें
छौंक से या छींक से,पता नहीं!
राजू ट्रेन की खिड़की पे बैठा है
हाथ में रुमाल है
गर्म थपेड़े चोट कर रहे हैं
पछुआ की शीतल स्पर्श याद आ रही है
राजू सोना चाहता है, नींद नहीं आ रही है
माँ याद आ रही है!
