-By Rohit Kumar
अखबार मे बस ये दो चीज़ें होती हैं- अलग अलग शक्ल और लिबास की- बस दो चीज़ें, “खबर” और “इश्तेहार”। हम सब भी जाने अंजाने इसी तरह की व्यवस्था का एक हिस्सा हैं और बड़ी शिद्दत से इसका पात्र हो जाना चाहते हैं। ये कविता बस ऐसी की किसी सोच की उपज है शायद।
सुबह का अखबार क्या है?
भीड़ है बस ख़बरों की और
कुछ हुनरमंद इश्तेहार के छिपे हुए चेहरे हैं।
ख़बरों की शक़्लें रोज कहाँ बदलती है?
नए अखबार में खबर वही पुरानी रहती है,
बस कोई सलीके से दिन-तारीख बदल देता है
तब्दीली कर देता ज़रा सी खबरों के नाम-पते में,
जैसे रंगरेज रंगों पर दूसरे रंग चढ़ा देता है।
इश्तेहारों की शक़्ल हर रोज बदल जाती है।
हुनर दिखाने को वक़्त मुख़्तसर मिलता है यहाँ
हुनरमंदों की तादाद बहुत ज़्यादा है।
कुछ दुबके मिलते हैं तेरहवें पन्ने के किसी कोने में,
कहाँ हर किसी को हासिल होता है अखबार का पहला पन्ना।
खबरें कहीं भी हों, खबरें होती हैं
दबे हुए इश्तेहार को कौन देखता है?
सुबह का अखबार क्या है? शहर है
ख़बर और इश्तेहार का जहाँ
हर इश्तेहार एक खबर हो जाना चाहता है,
कभी न बदलने वाली एक भीड़ का हिस्सा।
मैं इश्तेहार या खबर नहीं
अखबार की तारीख हो जाना चाहता हूँ।
एक दिन को ही सही,
ज़माने भर की जुबां पर तो रहूँ।
Meanings:
इश्तेहार – advertisement ; मुख़तसर – very less, short duration; रंगरेज – one who dyes the clothes; तब्दीली – changes
